■ प्रयोगशाला बना प्रदेश, परखनली में शिक्षा
#आलेख-
■ प्रयोगशाला बना प्रदेश, परखनली में शिक्षा
★ त्रिकोण में फंसा महकमा
【प्रणय प्रभात】
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उक्त शीर्षक आपको सकारात्मक सा लग सकता है। जो वास्तविकता में इस सच व आपकी सोच से उलट है। सच तो यह है कि मध्यप्रदेश में शिक्षा का जो तीया-पांचा किया गया है और किया जा रहा है, वो भावी पीढ़ियों के साथ खिलवाड़ है। बीते दो दशकों से एक प्रयोगशाला बने प्रदेश में शिक्षा परखनली में है। जिसे पता नहीं कौन सा रूप देने का प्रयास किया जा रहा है। अक़्सर लगता है कि सरकार और उसके कारिंदे न शिक्षकों को पढ़ाने देना चाहते हैं और न बच्चों को पढ़ने। ग़ैर-शिक्षकीय कार्यों में शिक्षकों को साल भर उलझाने के बाद बेहतर नतीजों की इच्छा की जाती है, वहीं सह-शैक्षणिक गतिविधियों के नाम पर बच्चों को व्यस्त रखने के नए-नए फार्मूले रोज़ खोजे जाते रहे हैं। जो शिक्षा की मूल भावना को ख़त्म करने वाले साबित हो रहे हैं।
जीता-जागता प्रमाण है, कक्षा 09 से 12 तक की छमाही परीक्षाओं का दौर। जो दिसम्बर के पहले पखवाड़े में सम्पन्न होने के बजाय जनवरी में शुरू हुआ है। वो भी तब जबकि अगले महीने प्री-बोर्ड परीक्षा तय है और मार्च का आगाज़ बोर्ड की परीक्षाओं के साथ होना तय है। ऐसे में ज़रूरत उस छमाही परीक्षा से अधिक नियमित कक्षा संचालन की थी। जो विद्यार्थियों व शिक्षकों दोनों के लिए मुसीबत का सबब बनने जा रही है। ग़लत समय पर थोपे गए “अनुगूंज” नामक कार्यक्रम के चक्कर मे दिसम्बर को सूली पर लटकाने वाले तंत्र को कोई परवाह नहीं है। क्योंकि उसके पास थोथी वाहवाही हासिल करने के तमाम हथकण्डे हैं। एक सप्ताह बाद छमाही परीक्षा सम्पन्न कराने वाले शिक्षक मूल्यांकन में व्यस्त हो जाएंगे। उन पर परिणाम घोषित करने से पहले दवाब प्री-बोर्ड की पूर्व तैयारियों का भी होगा। जिसे सम्पन्न करा कर नतीजे तय करने के बाद बोर्ड परीक्षा के पूर्व प्रबंधों की क़वायद तेज़ हो जाएगी। ऐसे में शेष पाठ्यक्रम कब व कैसे पूरा होगा, इसका जवाब वो नौकरशाह ही दे सकते हैं, जिन पर पर्दे के पीछे सरकार चलाने के आरोप अरसे से लगते आ रहे हैं।
सर्वविदित सच यह है कि प्राथमिक, माध्यमिक सहित उच्च व उच्चतर माध्यमिक शिक्षा विद्यार्थी जीवन का मूल आधार है। जो बच्चों के भविष्य की दशा और दिशा तय करती है। विडम्बना की बात यह है कि शिक्षा की इसी बुनियाद को जाने-अंजाने तहस-नहस करने का काम प्रदेश में धड़ल्ले से जारी है। वजह एक ऐसा त्रिकोण है, जिसके तीनो कोणों के बीच न कोई तारतम्य है, न किसी तरह का सामंजस्य। तीनो बिना आपसी तालमेल के ऐसी-ऐसी योजनाओं का घालमेल कर रहे हैं, जो पठन-पाठन को चौपट किए दे रही हैं। शालेय शिक्षा विभाग, राज्य शिक्षा केन्द्र व लोक शिक्षण संचालनालय का यह त्रिकोण इतर कार्यक्रमों व योजनाओं के नाम पर जहां करोड़ों के बज़ट की लंका लगाता आ रहा है। वहीं अध्ययन-अध्यापन के सिलसिले को भी बाधित बना रहा है। अलग-अलग ढपली पर अलग-अलग ताल देते तीनो उपक्रर्मों की आपा-धापी का आंकलन किसी भी एक सत्र में जारी उनके आदेशों की पड़ताल कराते हुए आसानी से किया जा सकता है। जिनमें ज़बरदस्त विसंगतियों की भरमार सहज उजागर हो सकती है। खोज-खोज कर लाए जाने वाले अनगिनत कार्यक्रमो के पीछे की मंशा बज़ट के कबाड़े के अलावा और क्या है, भगवान ही जानता होगा।
इस खतरनाक व खर्चीले त्रिकोण द्वारा साल भर मचाए जाने वाले कागज़ी धमाल के बाद रही-सही कसर ज़िला स्तर पर पूरी होती है। जहां शिक्षकों से अवकाश के दिनों में भी गैर-शैक्षणिक काम प्रशासन दवाब बना कर कराता रहता है। वो भी उनसे जिनके सिर पर ऑनलाइन व ऑफ़लाइन ट्रेंनिंग सहित डिज़िटल प्रोग्राम की गठरी पहले से धरी रहती है। ऐसा प्रतीत होता है मानो शिक्षकों को हाड़-मांस के इंसान व सामाजिक प्राणी के बजाय “रोबोट” समझ लिया गया है। जिसे चारों दिशाओं से चार-चार “रिमोट” एक साथ कमांड देने में जुटे हुए हैं। यक़ीन न हो तो आप चालू शिक्षण सत्र का शैक्षणिक कैलेंडर खोल कर देख सकते हैं, जिसमें सब कुछ है, पढ़ाई-लिखाई को छोड़कर। आलम यह है कि न सरकार को अपनी सारी योजनाओं व घोषणाओं का स्मरण रहता है, न उनके अमल में आने के बाद फॉलोअप का। ऐसे में सरकार और शिक्षा के ठेकेदार संस्थानों को भूली-बिसरी घोषणा, आदेश-निर्देश याद दिलाने के लिए मंत्रालय में अलग से एक शाखा स्थापित कर दी जानी चाहिए। जो राजनेताओं व अफ़सरों को अद्यतन स्थिति से उसी तरह अवगत कराती रहे। जैसे बरसात के दिनों में अतिवृष्टि और संभावित नुकसान की स्थिति से अवगत कराया जाता है।
शिक्षकों को “कोल्हू का बैल” मानने की सरकारी मानसिकता साल भर सामने आती है। जिसकी ताज़ा मिसाल 02 जनवरी से शुरू हुई अर्द्धवार्षिक परीक्षा का कार्यक्रम है। कड़ाके की शीतलहर के साथ आरंभ परीक्षा के लिए मात्र 15 मिनट के अंतराल से दो सत्र तय किए गए हैं। जिनके लिए शिक्षकों को सुबह 7:30 बजे स्कूल पहुंचने का फ़रमान जारी किया गया है। पहले व दूसरे सत्र में सुबह 08:00 से 11:00 और 11:15 से दोपहर 02:15 बजे तक दो-दो कक्षाओं की परीक्षा कराई जा रही है। सुबह 07:00 बजे से दोपहर 2:30 बजे तक भूख-प्यास का तोहफ़ा शिक्षक समुदाय की बहनों और बहनोइयों को मिल रहा है। वहीं बर्फीली हवाओं व गलन से सुन्न उंगलियों के बलबूते पर्चा हल करने की यंत्रणा तथाकथित भांजे-भांजी भोग रहे हैं।
सुविधा-सम्पन्न बंगलों और कार्यालयों के वातानुकूलित कक्षों में बैठ कर कार्यक्रम व आयोजन तय करने वाले आला-अफ़सर कितने संवेदनशील हैं, यह आसानी से समझा जा सकता है। जहां तक सरकार की जनहितैषी भूमिका का सवाल है, उसका अंदाज़ा आपको इतना सब पढ़ कर हो ही गया होगा। एक अभिभावकके तौर पर अपने बच्चों के लिए मुफ़्त किताबे, गणवेश, मध्याह्न भोजन, छात्रवृत्ति, साइकिल जैसी सौगातें बेशक़ आपको लुभाती होंगी। लेपटॉप के नाम पर 75 फ़ीसदी से अधिक अंक लाने वाले 12वीं के बच्चों को मिलने वाले 50 प्रतिशत राशि के चैक भी गदगद करते होंगे। ऐसे में कुछ और सोचने का मौका आपको जीवन और रोज़ी-रोटी की आपा-धापी के बीच शायद ही मिले। अगर ईश्वर की कृपा से कभी मिले तो अवश्य सोचिएगा कि मौजूदा माहौल और विसंगतियों के बीच आपके उत्तराधिकारी वाकई शिक्षित बन रहे हैं या फिर साक्षर? वही साक्षर, जिनकी कल्पना “ब्रिटिश-काल” मे “लॉर्ड मैकाले” ने की थी। कभी समय मिले तो थोड़ा सा मूल्यांकन अपने बच्चों की मानसिक व बौद्धिक स्थिति का भी कर के देखिएगा। संभवतः आपके मुग़ालते कुछ हद तक दूर हो जाएं। मुमकिन है कि आप समझ पाएं कि आपकी अगली पीढ़ियों को आदर्श नागरिक बनाने के बजाय सिर्फ़ मतदाता बनाने का कारनामा अंजाम दिया जा रहा है। जो उन्हें आने वाले समय मे कहीं का नहीं छोड़ेगा। यही सच सरकार को भी समझना होगा, जो रियासत को निरंकुश नौकरशाही के हवाले कर रात-दिन सियासत के खेल में व्यस्त बनी हुई है और पौधों की सिंचाई पानी की जगह छाछ से होते देख रही है। पता नहीं, किस मंशा से व किस मजबूरी में।।