■ जीवन दर्शन
■ विचार / उम्र और परख
【प्रणय प्रभात】
किसी न किसी को, किसी न किसी बहाने से “परखने” में सारी “उम्र” खपा देने वाले किसी को “समझने” में भी थोड़ा सा वक़्त खर्च करते तो आज रिश्ते सलामत रहते। विशेष रूप से उम्र के उस अंतिम पड़ाव पर जहाँ हमे अपनी देह, अपनी उम्र, अपना अतीत, अपने कर्म मिल कर परखने लगते हैं। इसलिए परखना ही है, तो स्वयं को परखें। जब मन करे तब। न समय व्यर्थ जाएगा, न श्रम और न ऊर्जा। स्मरण रहे कि इसी तरह का संकेत हमारे पूर्वज एक उक्ति के माध्यम से दे चुके हैं। “बंद मुट्ठी लाख की” जैसी उक्ति साबित करती रही है कि जीवन मे भरम का बने रहना ही ठीक है। तमामों के लिए यही भरम जीवन का आधार भी होता है। ऐसे में भरम का टूटना कष्टप्रद है। जिससे बचने का आसान उपाय है हर समय, हर किसी की परख के प्रयासों से बचना। देश दुनिया के ख्यातनाम शायर डॉ. बशीर “बद्र” ने कहा भी है-
“परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता।
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता।।”
वैसे भी जिस दुनिया मे एक चेहरे पर कई चेहरे रखने की परंपरा हो, वहां कौन, किसे, कैसे और क्यों परखे? ऐसी परिषितियों में अधिकांश लोगों की मानसिकता पर कुछ साल पहले मैंने भी अपनी एक ग़ज़ल में कहा था कि-
“सबके किरदार के हैं पहलू दो,
ये हमे हो चुका है अन्दाज़ा।
ख़ास के वास्ते अलग खिड़की,
आम के वास्ते है दरवाज़ा।।”
स्वार्थ पर टिकी दुनिया की रीति-नीति और प्रीति को परखेंगे तो विश्वास मानिए, केवल खोएंगे। उचित यही है कि परखने की बीमारी पर नियंत्रण रखें और सभी मे ईश्वरीय अंश देखें। “दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिए” की सीख नामचीन शायर डॉ. बशीर “बद्र” दे ही चुके हैं। उनसे पहले श्री रामचरित मानस के मंगलाचरण में दुर्जनों तक की स्तुति करने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी भी कह गए हैं-
“सियाराम मय सब जग जानी।
करहुं प्रनाम जोरि जुग पानी।।”
क्लांत के विपरीत शांत जीवन के लिए संभवतः इससे बड़ा महामंत्र व मध्य-मार्ग कोई और नहीं। आगे आपकी अपनी सोच।
जय राम जी की।