■ जारी रही दो जून की रोटी की जंग
#विडंबना.
■ जारी रही दो जून की रोटी की जंग
★ दूर थी, दूर है, दूर ही रहेगी दिल्ली
【प्रण प्रभात】
“हम हैं मज़दूर हमें कौन सहारा देगा?
हम तो मिटकर भी सहारा नहीं मांगा करते।
हम चराग़ों के लिए अपना लहू देते हैं,
हम चराग़ों से उजाला नहीं मांगा करते।।”
अपने दौर के नामचीन शायर मरहूम राही शहाबी की इन चार पंक्तियों के आधार श्रमिक समाज की महत्ता और भूमिका को रेखांकित करने वाला अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर (श्रमिक) दिवस गत 01 मई को दबे पांव गुज़र गया। खून-पसीना बहाने वाले कामगारों की जंग दो जून की रोटी के लिए रोज़मर्रा की तरह जारी रही। इन नज़ारों ने साफ़ कर दिया कि धरा पर देवशिल्पी भगवान श्री विश्वकर्मा के प्रतिनिधियों की स्थिति कल और आज के बीच केइतनी बदली। पाया गया कि 75वें साल के अमृतकाल में अमृत की बूंदें इस ख़ास दिन भी श्रमिकों को नसीब नहीं हुईं और उनका ख़ास दिन उनकी तरह आम बना रहा।
बताना मुनासिब होगा कि कथित “श्रम दिवस” वही दिन है जो पूंजीपतियों व सत्ताधीशों सहित भद्र समाज को सर्वहारा श्रमिक समुदाय की उपादेयता से परिचित कराता है और श्रमिक समाज को अपने अधिकारों की समझ के लिए प्रेरित भी करता है। उन श्रमिकों को, जिनकी भूमिका किसी एक दिन की मोहताज़ नहीं। उन्हीं श्रमिकों, जिन्हें यथार्थ के बेहद सख़्त धरातल पर आज भी नान-सम्मान और समृद्धि की छांव की दरकार है।
साल-दर-साल देश-दुनिया में मनाए जाने वाले इस दिवस विशेष के मायने दुनिया भर के श्रमिक संगठनों के लिए भले ही जो भी हों, लेकिन सच्चाई यह है कि भारत और उसके ह्रदय-स्थल मध्यप्रदेश में मांगलिक आयोजनों के बूझ-अबूझ मुहूर्त की पूर्व तैयारियों के आपा-धापी भरे माहौल और उस पर विधानसभा व लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में जारी सियासी धमाचौकड़ी ने मज़दूर दिवस के परिदृश्यों को पूरी तरह से हाशिए पर ला कर रखने का काम बीते सालों की तरह इस साल भी किया। बड़े पैमाने पर आयोजित वैवाहिक कार्यक्रमों और सामूहिक विवाह सम्मेलनों की अग्रिम व्यवस्थाओं की चहल-पहल ने अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस को उन परम्परागत आयोजनों और गतिविधियों से लगभग दूर रखा, जो महज औपचारिकता साबित होने के बावजूद श्रमिक समुदाय को कुछ हद तक गौरवान्वित ज़रूर करते थे। इनमें छुटपुट कार्यक्रनों और थोथी भाषणबाज़ी की चर्चा शामिल नहीं। कारोबारी कोलाहल में दबे मज़दूरों के स्वर इस बार वातावरण में उभर तक भी नहीं पाए। इस बात के आसार पहले से ही बेहद क्षीण बने हुए थे, क्योंकि उनके हितों व अधिकारों की दुहाई देने वाले शासन-प्रशासन और उनके प्रतिनिधियों की ओर से इस दिवस विशेष को बीते वर्षों में भी कोई ख़ास तवज्जो कभी नहीं दी गई थी। इस बार भी नहीं दी गई। रही-सही क़सर आसमान से बरस रही आपदा और हवा के धूल भरे थपेड़ों सहित बेमौसम की बरसात व ओलावृष्टि ने पूरी कर दी। जिसने लोगों को नया काम शुरू कराने से भी रोका। इसके बाद भी पेट की आग ने श्रमिक समुदाय को ऊर्जा की कमी और रोग-प्रकोप से विचलित नहीं होने दिया और उनकी मौजूदगी विभिन्न कार्य क्षेत्रों में दिखती रही। पाई। कहीं झूठी पत्तलें समेटते हुए। कहीं दम लगा कर भारी बोरियां ढोते हुए। कहीं बेंड-बाजे बजाते हुए तो कहीं रोशनी के हंडे कंधों पर उठा कर मदमस्त बारातियों की भीड़ के किनारे चलते हुए। रेहड़ी-पटरी, खोमचे और फेरी वालों के रूप में गली-मोहल्लों में घूमते हुए।
कुल मिलाकर श्रमिक समाज कल भी रोज़ कमा कर रोज खाने की बीमारी से निजात पाता नज़र नहीं आया और आम दिनों की तरह अपनी भूमिका का निर्वाह दिहाड़ी मज़दूर के रूप में करता दिखा। जिसके दीदार तामझामों के बीच पूरी शानो-शौकत से निकलने वाली बारातों से लेकर भोज के आयोजनों तक श्रमसाधक के रूप में हुए।
■ दिहाड़ी पर टिकी हाड़-मांस की देह….
श्रमजीवी समाज अपने लिए मुकर्रर एक दिवस-विशेष पर भी चैन से बैठा नज़र नहीं आया और मेहनत-मज़दूरी में जुटा दिखा। फिर चाहे वो विभिन्न शासकीय-अशासकीय योजनाओं के तहत ठेकेदारों के निर्देशन में निर्माण स्थलों पर चल रही प्रक्रिया हो या जिला मुख्यालय से लेकर ग्राम्यांचल तक जारी मांगलिक आयोजनों की मोदमयी व्यस्तता। हर दिन रोज़ी-रोटी के जुगाड़ में बासी रोटी की पोटली लेकर घरों से निकलने और देर शाम दो जून की रोटी का इंतज़ाम कर घर लौटने वाले श्रमिक समाज को कल भी सुबह से शाम तक हाड़-तोड़ मेहनत मशक़्क़त में लगा देखा गया। मज़दूर दिवस क्या होता है, इस सवाल के जवाब का तो शायद अब कोई औचित्य ही बाक़ी नहीं बचा, क्योंकि बीते हुए तमाम दशकों में इस दिवस और इससे जुड़े मुद्दों को लेकर ना तो मज़दूरों में कोई जागरूकता आ सकी और ना ही लाने का प्रयास गंभीरता व ईमानदारी से किया गया। ऐसे में उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति ख्यातनाम कवि श्री देवराज “दिनेश” द्वारा रचित इन दो कालजयी पंक्तियों से ही की जा सकती है कि-
मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या?
अगणित बार धरा पर मैने स्वर्ग बसाए।”
बहरहाल, मेरी वैयक्तिक कृतज्ञता व शुभेच्छा उन अनगिनत व संगठित-असंगठित श्रमिकों के लिए, जिनकी दिल्ली कल भी दूर थी, आज भी दूर है और कल भी नज़दीक़ आने वाली नहीं। हां, चुनावी साल में सौगात के नाम पर थोड़ी-बहुत ख़ैरात देने का दावा, वादा या प्रसार-प्रचार ज़रूर किया जा सकता है। जो सियासी चाल व पाखंड से अधिक कुछ नहीं।
●संपादक●
न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)