■ ग़ज़ल / धूप की सल्तनत में… 【प्रणय प्रभात】
■ ग़ज़ल / धूप की सल्तनत में…
【प्रणय प्रभात】
★ होठ से कंठ तक प्यास ही प्यास है।
धूप की सल्तनत छाँव की आस है।।
★ पौष के माह में एक वरदान थी।
जेठ के माह में धूप संत्रास है।।
★ मान लेना कि सम्मान बढ़ने को है।
जब लगे जिंदगी सिर्फ़ वनवास है।।
★ कल की करते हो बातें बड़े चाव से।
अगले पल का किसी को न आभास है।।
★ इस नए दौर में भी में खुशहाल हूँ।
मुझको पुरखों की बातों पे विश्वास है।।
★ दर खुले हैं कुटी के सभी के लिए।
ना कोई आम है, ना कोई ख़ास है।।