■ कविता / स्वान्त सुखाय :-
#कविता :-
■ बस वो जो मैंने चाहा
【प्रणय प्रभात】
“पद प्रक्षालन कर पाता तो
मैं सागर बन सकता था।
दुर्लभ रत्न संपदा अपनी
झोली में भर सकता था।
खारा होकर भी इस जग में
दर्शनीय हो सकता था।
कुछ आख्यान साथ जुड़ जाते
वन्दनीय हो सकता था।
निज विराट पर अट्टहास कर
सब कम्पित कर सकता था।
निज वैभव के बलबूते दुःख
जल प्लावित कर सकता था।
लेकिन गुरु होना कब चाहा
मैंने लघु का मान रखा।
निज हित गौण सर्वदा रखते
निज गौरव का ध्यान रखा।
सोचा प्रथम दृष्टि में निज की
परहितकारी भूप बनूं
सागर तो कोई बन लेगा
मैं मृदु जल का कूप बनूं।
बेमतलब में आडम्बर की
माला पड़े न जपनी भी।
बिंदु-बिंदु में तृप्ति निहित हो
औरों की भी अपनी भी।।”
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
(कविता अपने जन्मसिद्ध व स्वाभाविक स्वाभिमान को सगर्व समर्पित)