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15 Jun 2024 · 4 min read

■ कथ्य के साथ कविता (इससे अच्छा क्या)

#आतमकथ्य-
■ सच कहूँ तो…!
【प्रणय प्रभात】
यह कविता मेरे अंतर्मन से 2022 में स्वतः प्रस्फुटित हुई। महीना था प्रचंड गर्मी के प्रतीक जून का। दौर था कोविड नामक वैश्विक महामारी का। भीषण संक्रमण के इस भयावह काल में रुग्ण-शैया पर पड़ा मैं कुछ कर पाने तक की स्थिति में नहीं था। सामर्थ्य थी तो बस चिंतन करने की। भावों को रचना के रूप में लिपिबद्ध करने की। वो भी केवल मोबाइल पर। की-बोर्ड से भली-भांति परिचित एक उंगली की मदद से। किराए के एक छोटे से घर में।
पीड़ा और व्यग्रता के बेहद कठिन पलों में परवाह थी अपने सरोकारों की। चिंता थी अपने जर्जर घर की ऊपरी मंज़िल की। वही दूसरी मंज़िल जो मेरा आशियाना थी। मेरे व मेरी सहधर्मिणी के 3 दशक लंबे साझा संघर्ष की मूक साक्षी। सर्दियों में शिमला सी सर्द तो गर्मियों में बाड़मेर सी गर्म। बरसातों में पानी के रिसाव को रोक पाने में एक हद तक नाकाम हो चुकी छत और मामूली से कम्पन से दरकने को आतुर दिखाई देती उधड़ी हुई सी पुरानी दीवारें। तीन कमरों और एक बरामदे में जैसे-तैसे सहेजी गई गृहस्थी। आलों में रखे बैगों और कार्टूनों में भरा साढ़े तीन दशक का सृजन कोष। वर्षाकाल में बढ़ने वाली सीलन और दीमकों के हमले की आशंकाओं से कम्पित मन।
बेबसी और वेदना की जुगलबन्दी के बीच एक चिंता क्षेत्र के मानसूनी तंत्र की बेरुखी को लेकर। अपने कृषि-प्रधान क्षेत्र के उन सैकड़ों परिवारों की खेती-किसानी से जुड़ी आशंकाओं को लेकर भी। जो अल्पवर्षा से प्रभावित थीं। मानस में एक अंतर्द्वंद्व सा था। मानसून के वक्री तेवरों के कारण। कम बारिश से लोकजीवन का पीड़ित होना तय था। सामान्य अथवा अधिक बरसात से निजी व पारिवारिक नुकसान पक्का था। अच्छी बारिश के बाद उपजने वाले बुरे हालात की कल्पना तक कष्टप्रद थी।
विषम स्थिति के बीच सोच में बहुत कुछ आ रहा था। प्रश्न यह था कि चिंता किसे लेकर की जाए? अपने घर व सामान को होने वाली क्षति को लेकर या फिर आम जनजीवन की सम्भावित दयनीयता को लेकर? बस, ऊहापोह के इसी माहौल में उपजी यह कविता, जो कुछ दिनों बाद अतिवर्षा की भेंट चढ़े मोबाइल के साथ वक़्त की बाढ़ में समा गई। आज पूरे दो साल बाद अनायास हाथ आई कविता ने पुराने दौर की यादों को एक बार फिर ताज़ा कर दिया। स्वहित और परहित के बीच झूलती सोच का निष्कर्ष बताती यह कविता आज सुविज्ञ व सम्वेदनशील मित्रों को सौंप रहा हूँ। राम जी की कृपा है कि बीते दो साल के दौरान चार दशक पुराने आशियाने की दशा बदल गई है। सिर छुपाने व गृहस्थी को बचाए रखने का संकट बीते दिनों की बात बन चुका है। लगता है कि यह एक सकारात्मक सोच का ही सुखद परिणाम है। बाक़ी आप को तय करना है। इसे पढ़ने के बाद। घर की दशा का चित्रण अक्षरक्षः सही है। इसे प्रमाणित करेंगे वो तमाम मित्र व परिचित, जिन्होंमे मेरा घर 2 साल पहले तक देखा है। वे भी बताएं कि तत्कालीन परिदृश्यों का दृश्यांकन कर पाने में कितनी सफल रही लेखनी।।

#सामयिक_कविता।
■ दर्द नहीं निज त्रास का हो पूरी जग आस
【प्रणय प्रभात】
“फिर से छत टप-टप टपकेगी,
फिर से दीवारें सीलेंगी।
सीलन की बदबू कमरों में,
काफ़ी कुछ दीमक लीलेंगी।मुश्किल से हटी महीनों में,
फिर धूल विवशता झाड़ेगी।जाने आने वाली बारिश,
कितना सामान बिगाड़ेगी।
किश्तों में उतरेंगी परतें,
नंगी दीवारें झांकेंगी।
जर्जर हो चुकीं मुंडेरें भी,
मरहम पट्टी को ताकेंगी।दीवारों से फूटे पीपल,
फिर से तरुणाई पाएंगे।
हैं बाहुपाश सी शाखाएं,
हम कब तक पात गिराएंगे?इक कमरे में रहना होगा,
बाक़ी दरवाज़ों पर ताले।
जिस रोज़ निगाहें चूकेंगी,
मकड़ियां बना लेंगी जाले।सहभोज करेंगी छिपकलियां,
आएंगे कीट दरारों से।
फिर जंग लड़ेंगे ज़ंग लगे,
जँगले तीखी बौछारों से।कॉपियां, किताबें, डायरियां,
मुश्किल से ही बच पाएंगी।धुंधलाएंगे अक्षर तमाम,
आड़ी-तिरछी हो जाएंगी।जितने अभाव दाबे बैठे,
सबका रहस्य खुल जाएगा।दीवाली पर पोता चूना,
इक बारिश में धुल जाएगा।जब-जब भी बादल गरजेंगे,
तब-तब बुनियादें कांपेंगी।दीवारों पर टिकती नज़रें,
सारा नंगापन भांपेंगी।
पैरों नीचे फिसलन होगी,
दुर्गम होगा छत पर जाना।फिर भी विनती इंदर राजा,
बारिश अच्छे से बरसाना।हर्षित हों धरतीपुत्र सभी,
मन की गौरैया चहक उठे।अम्बर से उतरें बौछारें,
चंदन सी माटी महक उठे।कोयल कूकें नाचें मयूर,
तपती धरती राहत पाए।
हर बीज गर्भ से धरती के,
नव अंकुर बन बाहर आए।
ना मानसून की मनमानी,
गांवों की खुशियों को निगले।हर एक खेत हो स्वर्ण खान,
मिट्टी हीरे-मोती उगले।
पशुधन पाए पूरी ख़ुराक़,
हो दूर तलक बस हरियाली।हो विपुल उपज भंडार भरें,
खलिहानों में हो खुशहाली।सालों का संचित अनुभव है,
तक़लीफ़ें याद दिलाता है।फिर से दूभर होगा जीना,
पल-पल आभास कराता है।पर हम अभाव के सत्कारी,
कष्टों में भी निष्कामी हैं।वैयक्तिक दुःख से दुःखी सहीं,
बहुजन सुखाय के हामी हैं।हम कृष्ण पक्ष को क्यों रोएं,
हम शुक्ल पक्ष का गान करें।
लहराते आएं मेघदूत,
सच्चे मन से आह्वान करें।।☺️☺️☺️☺️😊😊☺️☺️☺️ ☺️
(निजी आशंकाओं के बीच आस अच्छे मानसून की सब के लिए इस साल भी, बाबा महाकाल से)
★सम्पादक★
न्यूज़ & वयूज़
श्योपुर (मध्य प्रदेश)

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