■ कटाक्ष…
■ विरोधाभासी चरित्र…
【प्रणय प्रभात】
क़रीब 30 साल पहले मैंने एक शेर कहा था। जो मुनाफ़िक़ (दोगले) की एक परिभाषा था। शेर कुछ यूं था-
“बेशक़ यही है दोस्त, मुनाफ़िक़ की निशानी।
दिल और, जिगर और, नज़र और, ज़ुर्बा और।।”
ऐसे लोगों का वाकई कोई भरोसा नहीं। कोई ठिकाना नहीं कि कब तोला हो जाएं और कब माशा। क्या सोचें और क्या बोल दें, कुछ पता नहीं। ऐदुरंगे (दोगले) लोग जो अक़्सर ख़ुद के नहीं हो पाते उम्र भर। किसी और के क्या ख़ाक होंगे।।