■ आज का मुक्तक
■ मुक्तक / दृष्टि और सृष्टि
【प्रणय प्रभात】
“व्योम झुलसा हुआ है
धरा तप्त है।
एक संवेदना,
वो भी संतप्त है।।
सोच अपनी है
अपने ही आभास हैं।
चाँद की दृष्टि में
सूर्य अभिशप्त है।।”
“जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि” एक प्राचीन उक्ति है। जो कल भी प्रासंगिक थी, आज भी है और कल भी रहने वाली है। उक्ति का सम्बंध सोच और धारणा से है। अत्यंत हास्यास्पद यह है कि हमारी दृष्टि स्वयं को छोड़ कर सारी सृष्टि की बुराई देख लेती है। यही हाल सोच का है, जो अन्यान्य के विषय में त्वरित धारणा बनाने में पारंगत है लेकिन उसके पास आत्मावलोकन की सामर्थ्य का अभाव है। आत्म-मुग्धता का मूल कारण सम्भवतः यही है।।