■आक्रोश की अभिव्यक्ति■
#तीखी_कविता-
■ सुप्त शक्ति के नाम।
【प्रणय प्रभात】
“निर्भया सा नाम देकर, पीड़िता की रूह पर,
सांत्वना की रूई के, फाहे लगाना छोड़ दो।
तख्तियाँ रख दो उठा कर, मोमबत्ती छोड़ कर,
छोड़ दो आंसू मगरमच्छी बहाना छोड़ दो।।
खोखले नारों से सोतों को जगाने के लिए,
जम के कूटो छातियाँ, रैली करो धरने धरो।
आज से बीते हुए कल ने कहा कल के लिए,
कुछ हुआ, ना हो सकेगा, लाख नौटंकी करो।।
हो अगर ग़ैरत ज़रा कुत्सित सियासत से परे,
अस्मतों को जाति, भाषा, धर्म से मत तोलिए।
हैं अगर इंसान रखिए ध्यान में इस बात को,
अश्क़ में है ख़ार पहले से, नमक मत घोलिए।।
रो रही है लेखनी, आंसू हुए अंगार से,
बस रियाया से नहीं, कहना रियासत से भी है।
होश मानें, जोश मानें, रोष मानें शौक़ से,
लाजमी होना मुख़ातिब अब सियासत से भी है।।
चाहता हूँ चीख ये, पहुंचे महल के द्वार तक,
सच अगर है धृष्टता, तो हर सज़ा स्वीकार है।
शीर्ष पे सत्ता-शिखर के है विराजित शक्ति जो,
आज इतना सच बताने की बड़ी दरक़ार है।
मुल्क़ अब अनपढ़ नहीं है, छोड़िए छलना उसे,
बच्चा-बच्चा जानता है, बात सारी साफ़ है।
मर्तबा क़ानून से ऊपर है केवल आपका,
अर्दली सी हैं दफ़ाएँ, मातहत इंसाफ़ है।।
पूछती हैं प्रश्न हर दिन, आप से हां आप से,
कांपती सम्वेदनाएँ और लज्जित सी हया।
सिर्फ़ इतना सा बता दें आत्मा से पूछ कर,
दानवों की याचना पर क्या दया कैसी दया??
न्याय के मंदिर में जितनी बार टूटी है क़लम,
आप उतनी बार बस टूटे दिलों को जोड़ दो।
बैरकों को काल वाली कोठरी के रास्ते,
जितनी जल्दी हो सके, फांसी-घरों तक मोड़ दो।।
थक चुकी इंसानियत बतला रही समझा रही,
आस में यदि न्याय के खपती गई पीढी नई।
हो गई हावी हताशा देख लेना एक दिन,
फिर उठेगी कोई फूलन, फिर रचेगी बेहमई।।”
【इंक़लाब ज़िंदाबाद】
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-सम्पादक-
●न्यूज़&व्यूज़●
(मध्य-प्रदेश)
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