।। द्वंद्व।।
अनादि काल से ये द्वंद्व चलता आ रहा है,
किसी के अंदर जीत और हार का द्वंद्व है।
किसी के अंदर पाने और खोने का द्वंद्व है,
तो कोई अपने पराए के द्वंद्व से घिरा है।
ये द्वंद्व शायद बुद्धि के साथ ही चला आता है,
और जब तक व्यक्ति जीवित रहता है,
यह साथ साथ चलता है।
बाहर की लड़ाई तो आसान है,
लेकिन अंदर का युद्ध बहुत खतरनाक है।
जैसे दो तरह की सेनाएं अंदर ही अंदर लड़ रही हों,
जीतने की जद्दोजहद में लगी हों।
लेकिन ये युद्ध खतम ही नहीं होता,
उसी क्षण दूसरा द्वंद्व सामने खड़ा होता है।
मन के सिंचित जमीन से ना जाने कितने तरह के द्वंद्व उपजते हैं,
ये द्वंद्व दो ही तरह से समाप्त होते हैं।
या तो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त कर के,
या तो मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर ले।
✍️प्रियंक उपाध्याय