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21 Oct 2019 · 1 min read

य़ादों का कारवाँ

चिराग जो बुझ चुके हैं उन्हें फिर न तुम जलाना ।
बीते हुए वो लम्हे उन्हें न याद दिलाना।
ये सूनी सूनी गलियांँ ये रूख़े रूखे़ मंज़र ।
मिलता है न सुकून अब मुझे मेरे ही घर के अंदर।
आती जहांँ थी लहरें नग़मो के तरन्नुम में बहती नदियों में।
उभरते हैं अब तो खा़र वहांँ गु़मसुम तन्हाईयों में।
ग़ुलेग़ुल ग़ुलशन में बेज़ार से लगते हैं ।
खिले से वो चेहरे मुरझाए बेक़रार से लगते हैं ।
बदग़ुमा था श़ायद अब तल़क़ डूबते म़ेंहर और इस उफ़क से।
लगता अब तो किया हो सुर्ख़ सारा आलम चीर कर सीना फ़लक के ।
बरसात की गिरती बून्दों का असर इस कदर है ।
जैसे रो रहा हो ये आसमाँ क़ुफ़्र के क़हर से।
स़म्त़ ह़वाओं के झौंके भी अब ना़गवा़र गुज़र जाते हैं।
म़हकती फ़िज़ाओं के चहकते पंछी भी स़ोग़वार नजर आते हैं।
डर लगता है रोशनी से मुझे अब तो अन्धेरे रास आते हैं ।
भूलना चाहता हूं मैं उस म़ांज़ी को जो तेरे पास लाते हैं ।
अब तो अकेला ब़ियाब़ान रातों में भटक जाना चाहता हूं ।
खुद से बेख़बर ब़न्जारों सी नींद में सिमट जाना चाहता हूं ।

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