फ़िल्म समीक्षा:वीरे दी वेडिंग
फिल्म समीक्षा: वीरे दी वेडिंग
यह एक चर्चित फिल्म है एकता कपूर की और आज ही मैंने इसे देखा है ।इस फिल्म के बारे में बहुत सी सकारात्मक बातें हैं, बहुत से सकारात्मक सुखांत हैं। इसी के साथ – साथ इतने अधिक नकारात्मक चीजें हैं कि वह समाज के सामने यदि उतने खुलेपन के साथ आएंगी तो एक अराजकता के साथ, बुरी भावनाओं के सामने आने की संभावना अधिक बनी रहती है ।आज हमारा समाज जिन बुराइयों से जूझ रहा है, वह किसी भी प्रबुद्ध वर्ग से छुपी नहीं है। आज हम अपने युवा वर्ग को अच्छी शिक्षा ,अच्छे संस्कार, बेहतर मानवीय मूल्य, उन्नत सामाजिक मूल्य, यह सब देना चाहते हैं ,और यह हमारा कर्तव्य भी है। क्योंकि यदि हम अपने इस पीढ़ी को यह सब नहीं देंगे तो यही युवा वर्ग अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या हस्तांतरित करेंगे?
सबसे पहले हम बात करते हैं सकारात्मकता की । क्योंकि समीक्षा समालोचना पर आधारित होती है।
इस फिल्म में दो भाइयों के आपसी झगड़े का अंत दिखाया गया है और ऐसा करने के लिए उनके बच्चों और उनके दोस्तों के द्वारा उन्हें प्रेरित किए जाता है और वो दोनों पुराना सब कुछ भूल कर पुन: एक हो जाते हैं । ये बहुत अच्छी बात है कि किसी भी गलतफहमी या झगड़े का अंत करना है तो मिलकर बात करना बहुत जरूरी है ताकि आमने सामने बैठकर सब गिले शिकवे दूर किये जा सकें।इसके लिए संवाद और रूबरू मिलना बहुत आवश्यक है।ये इस फ़िल्म का बहुत ही सुंदर चित्रण है।
इसके बाद एक पिता को बड़ी सहजता और शालीनता के साथ उनकी बेटी के द्वारा अपनी भूल का अहसास कराया जाता है कि बचपन में माता पिता की जो लड़ाई होती है उससे बच्चों का बचपन कितना प्रभावित होता है और उनके कोमल मस्तिष्क पर यह प्रभाव अमिट रह जाता है। इसलिए हम इस बात से बचने की प्रेरणा देता है कि पति पत्नी को चाहिए कि किसी भी प्रकार का झगड़ा, किसी भी प्रकार अलगाव और वैचारिक विरोधाभास यदि हो तो वह बच्चों के सामने प्रकट ना किया जाए ताकि उनके कोमल मन को किसी भी प्रकार की ठेस ना पहुंचे ।यह सुंदर संदेश हमें इस फिल्म के द्वारा मिलते है। इसी के साथ आजकल शादियों में फ़िज़ूल ख़र्च पर भी कटाक्ष किया गया है।
परंतु इसी के साथ हमारे रीति रिवाज और परंपराओं का भी विरोध किया गया है जो कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर है, हमारी पहचान है।इस फ़िल्म में बहुत अधिक गाली गलौच तथा पश्चिमी सभ्यता का प्रदर्शन किया गया है जो शायद हमारे आने वाले समय को एक दशक आगे ले जाता है।
जितना खुलापन और जितना नयापन इस फिल्म में दिखाया गया है वह शायद हमारे समाज का भविष्य है ।यह सब हमारी नई पीढ़ी को पता नहीं किस दिशा की ओर ले जाएगा। साहित्य समाज का दर्पण है और समाज पर मीडिया का भी भरपूर प्रभाव पड़ता है ।मीडिया समाज से संबंधित है और समाज मीडिया से प्रभावित होता है। आज हमारा युवा वर्ग जहां हीरो हीरोइन को अपना आदर्श मानते हैं तो वह भी जाने अनजाने में वही हरकतें करना चाहते हैं ,करने लग जाते हैं जो फिल्मों में उनके आदर्श अपनाते हैं। एक तो इस तरह की फिल्मों को, इस तरह के सींस को सेंसर बोर्ड के द्वारा थोड़ा सा सीमित करने की आवश्यकता है क्योंकि बुराइयां तो हम स्वयं ग्रहण कर ही लेते हैं जरूरत है अच्छी बातों को अपनाने की और ऐसा करने की शिक्षा और अभिप्रेरणा देने की।
हमारे फ़िल्म निर्माताओं को कुछ ऐसी फिल्मों का निर्माण भी अवश्य करना चाहिए कि फ़िल्म देखने के बाद हमारे युवा वर्ग को हमारे दर्शक वर्ग को सिनेमा से बाहर आने पर कुछ अच्छा, कुछ सामाजिक, कुछ नैतिक सुंदर संदेश देता हो एवं इसी के साथ मन मस्तिष्क को एकाग्रता के साथ कुछ सोचने को मजबूर करता हो ।
हालांकि यह फ़िल्म A सर्टिफिकेट के साथ रिलीज की गई है परंतु 18 साल के युवा या अविवाहित युवाओं पर भी इस तरह के सीन (जो केवल बंद कमरे में ही होने चाहिए) बुरा असर डालते हैं।
कुछ ऐसे भी सीन है जो कि एकांत की सीमा का उल्लंघन करते हैं ।यह सब हमारे आंतरिक और अतरंग जीवन का हिस्सा है जो सबके सामने नहीं आना चाहिए। फिल्मों का उद्देश्य केवल एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट ही नहीं होना चाहिए। इनका उद्देश्य कुछ यह भी हो कि समाज को कुछ अच्छा दिया जा सके ताकि ऐसी फिल्मों को हमेशा के लिए कभी भी, किसी के भी साथ देखा जा सके। कहीं ना कहीं इस फिल्म के पीछे हमारी अपनी भी मानसिकता नजर आती है जो इसके निर्माण की टीम का हिस्सा हो सकती है।
यह मेरे स्वयं के विचार हैं जरूरी नहीं कि सभी इससे सहमत हों। इससे कई लोगों को बहुत सी आपत्तियां भी हो सकती हैं। परंतु कई लोग इसका समर्थन भी करेंगे क्योंकि हम समाज में रहने वाले हैं। इसलिए हमारा यह नैतिक कर्तव्य है कि हम शिक्षक वर्ग हैं तो किसी भी माध्यम से हम अपने संबंधित युवा वर्ग को, किसी भी वर्ग को, किसी भी माध्यम से अच्छी शिक्षा प्रदान करें क्योंकि अच्छाई प्रदान की जाती है, दिखानी पड़ती है बुराई तो हर जगह व्याप्त है ही, और वह अपने आप ही आ जाती है उसे तो बहुत प्रयास के साथ दूर करना पड़ता है।
आशा है भविष्य में सेंसर बोर्ड और हमारे फिल्म निर्माता इस बात को ध्यान में रखकर फिल्म बनाएंगे जिनसे ज्यादा से ज्यादा सीखा जा सके।
इन्हीं शब्दों के साथ धन्यवाद।
लेखिका
डॉ विदुषी शर्मा