फ़ासला रह गया
मिट ने वाला था जो फ़ासला रह गया
खेल किस्मत का मैं देखता रह गया
कुछ कहे बिन मुझे चल दिया छोड़कर
बिन लुटे यार मैं ख़ाक सा रह गया
जब दिया बुझ गया पास आया कोई
रौशनी में उसे ढूँढ़ता रह गया
देर इन्साफ़ को हो रही आज है
इस भी तारीख़ पर फ़ैसला रह गया
क़द्र इन्सान की कर सका कब कोई
कोई पत्थर मगर पूजता रह गया
ज़ुल्म होता रहा आँख के सामने
ये ज़माना मगर देखता रह गया
जान निकली किसी की मेरे सामने
जिस्म लरजा मेरा कांपता रह गया
जिसको सोचा नहीं वो मिला है सदा
जिसको चाहा मगर वो जुदा रह गया
जबकि ‘आनन्द’ ने माफ़ियां मांग लीं
कौन सी फिर शिकायत गिला रह गया
– डॉ आनन्द किशोर