ज़ख़्म वरना हरा नहीं होता
——-★ग़ज़ल★——-
काश मैं बा-वफ़ा नहीं होता
इस तरह ग़मज़दा नहीं होता
दर्द क्या है पता नहीं होता
दिल जो तुझको दिया नहीं होता
मेरा कुछ कर न पाती ये आँधी
हाथ ग़र आप का नहीं होता
तुम गिराते नहीं अगर बिजली
तो मेरा घर जला नहीं होता
मैं न ऐसे तबाह होता अगर
छोड़ कर वो गया नही होता
मौत का होता है जो सौदागर
वो किसी धर्म का नहीं होता
शायरी क्या है जानता कैसे
आपसे गर मिला नही होता
हम भटकते नहीं जो सहरा में
इश्क़ क्या है पता नहीं होता
ये नवाज़िश है आपकी “प्रीतम”
ज़ख़्म वरना हरा नहीं होता
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)