ज़ख़्म भी अपने छिपाए हैं बहुत
ज़ख़्म भी अपने छिपाए हैं बहुत
फिर भी हम यूँ मुस्कुराए हैं बहुत
प्यार में ग़म भी उठाए हैं बहुत
प्यार के हम भी सताए हैं बहुत
हो नहीं ताबीर पाई क्या हुआ
ख़्वाब पलकों पर सजाए हैं बहुत
क़ाफ़िला जब-जब वफ़ा का लुट गया
हमने भी आँसू बहाए हैं बहुत
जो वफ़ा का दम भरा करते सदा
उनको भी हम आज़माए हैं बहुत
सामने से दोस्तों का वार था
ज़ख़्म सीने पर भी खाए हैं बहुत
किरचा-किरचा आइना जब हो गया
तब भी उसने सच दिखाए हैं बहुत
बस फ़क़त रोज़ी कमाने के लिए
गाँव से भी शह् र आए हैं बहुत
बेख़ुदी ‘आनन्द’ ऐसी हो गयी
जाने क्या-क्या बड़बड़ाए हैं बहुत
– डॉ आनन्द किशोर