ज़ीवन के वार
खड़ा बही अपराध भाव से ।
चलता जो निःस्वार्थ भाव से ।
सी कर चादर को अपनी ,
ओढ़ा पुरुस्कार भाव से ।
खड़ा बही अपराध भाव से ।
चलता जो निःस्वर्थ भाव से ।
जो खुशियाँ हाथों में उसके ,
वो बाँट चलता बड़े प्यार से।
खड़ा बही अपराध भाव से ।
चलता जो निःस्वर्थ भाव से ।
सहज सका न अपनी ख़ातिर
जो चलता उपकार भाव से ।
खड़ा बही अपराध भाव से ।
चलता जो निःस्वर्थ भाव से ।
अजीव पहेली है जीवन की ,
हारा ज़ीवन ज़ीवन के वार से ।
…. विवेक दुबे”निश्चल”@