ज़िंदा लाश़ों की भीड़
ग़मों को ज़ज्ब़ करके हमने मुस्क़ुराना सीख लिया है।
उनकी झूठी तारीफ़ में क़सीदे गढ़ना सीख लिया है।
ये ज़माने का दौर है या वक़्त का तकाज़ा हर शख्स़ बदला-बदला सा नजर आता है।
अंदर से कुछ बाहर से और कुछ नज़र आता है।
कभी-कभी तो इंसानिय़त का मुखौटा पहने शैतान नजर आता है।
हमदर्दी के आंसू भी झूठे लगते हैं कभी हम़दर्द बना खुदगर्ज़ नज़र आता है।
दीन दुनिया की भलाई की दुहाई देता मौक़ाप़रस्त कमज़र्फ नज़र आता है।
हर तरफ इशारों पर नाचते हुए जमूरे बने क़िरदार नज़र आते हैं।
इंसानिय़त को ताक़ पर रखकर लाश़ों पर सिय़ासत करने वाले ग़द्दार नजर आते है
ख़िलाफ़त की आग को सुलग़ते ही ब़ुझा दिया जाता है।
आवाज़ उठाने वाले को ख़ामोश कर दुनिया से ही उठा दिया जाता है ।
ज़ुल्म और ब़ेइंसाफी पर ख़ामोश तम़ाशाब़ीनों की यहां कोई कमी नहीं है ।
लोगों के दिल में इंसानिय़त मर गई और ज़ेहन में ख़ुदगर्ज़ी भरी पड़ी है।
मैं ख़ुद को इस भीड़ में अकेला सा पाता हूं ।
कुछ कर गुजरने का हौसला मैं अदऩा सा जुटा नही पाता हूं।
दिल के गुब़ार और अपनी सोच को दफ़न कर ,
मैं भी इन ज़िंदा लाश़ों की भीड़ में शामिल हो जाता हूं।