ज़िंदगी
ज़िंदगी फिल्म की तरह बनती है,
सँवरती है, बनतीहै, बिगड़ती है,
लोग देखते हैं और वक्त के प्रवाह में
बहती हुई लावा की तरह ठहरकर
पत्थर सी बन जाती है !
…..और न जाने हम उसी के लिये
पागल से हो जाते हैं… !
ज़िंदगी फिल्म की तरह बनती है,
सँवरती है, बनतीहै, बिगड़ती है,
लोग देखते हैं और वक्त के प्रवाह में
बहती हुई लावा की तरह ठहरकर
पत्थर सी बन जाती है !
…..और न जाने हम उसी के लिये
पागल से हो जाते हैं… !