ज़िंदगी तू क्या है
ज़िन्दगी तु क्या है, क्या है तु ज़िन्दगी ?
ज़िन्दगी है तु क्या ,ज़िन्दगी क्या तु है ?
जानना चाहता मेरा मन तुझे हर पहलू से है
करना चाहता तुझसे ये, कुछ गुफतगू सी है
पहल की मेरे मन ने, फिर शुरू हुआ बातों का दौर
कहा मेरे मन ने ,”अ ज़िन्दगी “- ‘ करना ये गौर’
समाया है तुझ में बहुत कुछ, की नहीं है तेरा कोई छोर
तुझमें
हार भी और जीत भी
रूदन भी और गीत भी
असफलता भी और सफलता भी
विरलता भी और सरलता भी,
बिछड़न भी और मिलन भी
प्रेम भी और जलन भी
दोस्त भी और दुश्मन भी
भूख भी और प्यास भी
संताप भी और आस भी
अधर्म भी और धर्म भी
चोट भी और मर्म भी
गुस्ताखी भी और शर्म भी
सर्द भी और गर्म भी
किस्मत भी और कर्म भी
कठोर भी और नर्म भी
खुशी भी और गम भी
ज्यादा भी और कम भी
सुन सब बड़े ही ध्यान से,
ज़िन्दगी ने ली इक अंगड़ाई
और बोली—
“यही सब कुछ ही तो हूं मैं ‘मंजुल’ भाई
समाया है मुझमें हर ये रंग
जबकि खुद मैं हूं बेरंग
अब निर्भर करता ईंसान पर है
कि अपनाता है वो क्या?
दुख-विलाप या उत्साह-उमंग !
©®मंजुल मनोचा©®