” ज़रा सी ख्वाहिश “
वो जी भर – भर कर औरों को सुख देतीं हैं
खुद की ‘ ज़रा सी ख्वाहिश ‘ के लिए
किसी कोने अतरे में छिप कर
हिचक – हिचक के जार – जार रो लेती है ,
कभी किसी ने जाना ही नही
उसकी भी ख्वाहिश होगी
पूरी करने की चाहत होगी
ये किसी ने माना ही नही ,
सब व्यस्त अपने आप में हैं
उसके लिए फुर्सत कहाँ
वो कैसी है किस हाल में
जल रही किस ताप में है ,
जो तुम्हारी एक आवाज़ पर दौड़ी आती
वो बुलाये अपनी तकलीफ में तो
उसकी आवाज क्या तुम्हारे कानों को
ज़रा सा भी सुनाई नही देती ,
जिसने अपनी पूरी उम्र दे दी तुम्हें
अपनी ख्वाहिशें ताक पर रख कर
तुम्हारी एक – एक ख्वाहिशों को
हर हाल में पूरी करके दीं तुम्हें ,
वो आज अकेली हो गई है
तुम्हारी याद में रो – रो कर
देखो कैसी प्यारी सी माँ
कुछ ज्यादा ही बूढ़ी हो गई है ,
उसकी ज़रा सी ख्वाहिश कभी भी
आकर पूरी कर दो पलभर के लिए
तुमको नजरभर देखने की
उसकी ‘ ज़रा सी ख्वाहिश ‘ है अभी भी ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 01/11/2020 )