ग़ज़ल:
जो बिखर गई थी टुकड़ों में, बोटी जनता की थी वह।
छीना -झपटी से जो लूटा, रोटी जनता की थी वह।
पानी के नल की तोड़ी जो,बस्ती सारी प्यासी है,
खाली है गागर हर घर की,टोंटी जनता की थी वह।
बेगार किया कुछ भी न मिला,चूल्हे ठंढे के ठंढे,
बीमार बाप भूखे बच्चे,खोटी जनता की थी वह।
जो फेंका उस पर टूट पड़े, नेता कुत्तों जैसे पर,
कुछ जीत गए कुछ हार गए,गोटी जनता की थी वह।
सीखा न कभी लड़ना-मरना,आपस में कलह नहीं है,
हम ‘सहज’ जिसे कह गए भूल -छोटी जनता की थी वह।
@डा०रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवक्ता / साहित्यकार
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