ग़ज़ल
वो बेरुखी हबीब की’ दिल के सितम हुये
रिश्ते तमाम छिन गए’ आशिक अलम हुये |
संचार का विकास किया जिंदगी सुगम
दुर्वोध बाधा विघ्न सभी ओर कम हुए |
तलवार जख्मी’ ज्यूँ हुया सैनिक हताश जब
तब हौसले का अस्त्र हमेशा कलम हुये |
भाषण के चक्र व्यूह में’ जनता हुई है’ गुम
अच्छे तमाम दिन हुये सबको’ भ्रम हुये |
सब काण्ड में गुनाह छिपा पर्दे में सभी
संसार में तमाम भलों पर सितम हुए |
जो रहनुमा की’ भीड़ में जो भी पता चला *
वे लालची सभी लुटे’ क्या यह धरम हुये ?
करते रहे तमाम वो’ ‘काली’ करामतें
अखबार में छपी, वहां दोषी कलम हुए |
आलम =दुखी
कालीपद ‘प्रसाद’