ग़ज़ल
कब किसी के कहे से रुकी ज़िन्दगी,
छलछलाती नदी सी बही ज़िन्दगी।
लफ्ज दर लफ्ज़ मिलती नई साँस अब,
शायरी शौक से हो गई ज़िन्दगी।
दी मुहब्बत इसे उम्र सारी मगर,
हो गई मौत की बस सगी ज़िन्दगी।
ए खुदारा भला कौन करता अलग,
जो कि भगवा, हरे में बँटी ज़िन्दगी।
साथ तेरे थी महकी गुलों सी कभी,
खार बनकर ही अब वो चुभी ज़िन्दगी।
हल तलाशा किये हर नफ़स हम मगर,
इक पहेली अबूझी रही ज़िन्दगी।
वो खड़े हैं लहद पे लिए चश्मे तर,
ए खुदा बख़्श दे दो घड़ी ज़िन्दगी।
हल तलाशा किये हर नफ़स हम मगर,
है कफ़स में गमों की ‘शिखा’कैद पर,
तुमको देखा तो खुलकर हँसी ज़िन्दगी।
दीपशिखा सागर-