ग़ज़ल
जला है दिया, अब अंधेरा हटेगा.
सुखों पर लगा है,वो पहरा हटेगा.
शिकंजे में थीं चन्द, लोगों के खुशियाँ,
आम लोगों से, ज़ुल्मों का डेरा हटेगा.
है यह देश सबका, सभी के लिए,
रिवाजों से अब शब्द, ‘मेरा’ हटेगा.
पलता जो, हमारे लिए साँप अब,
वक़्त को भांप पापी, सपेरा हटेगा.
बिन कमाई के रोटी, मिलेगी न जब,
ज़िन्दगी से हमारे, लुटेरा हटेगा.
मिलके रहने का, जरी हुआ है चलन,
ज़ुल्मतों का जहां से, बसेरा हटेगा.
कर्मफल – कर्मठों से, कहाँ जाएगा ,
कामगारों के शोषण का घेरा हटेगा.
( मेरी कृति -ग़ज़ल संग्रह :प्राण-पखेरू’ से )
@डॉ.रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवक्ता/ साहित्यकार
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