ग़ज़ल
हमसफ़र है न हमनवा अपना,
बस सफर में है काफिला अपना।
मुख्तलिफ जावियों में ढालेंगे,
तू बहर तू ही काफ़िया अपना।
अश्क़ देते रहे नमी इनको,
ज़ख्म इक इक रहा हरा अपना।
बेखुदी हम पे ऐसी तारी थी,
कह गए सारा माज़रा अपना।
प्यास बुझती नहीं है क्यों आखिर ,
साक़ी अपना है मयकदा अपना।
खोने वाले तेरी मुहब्बत में,
ढूंढते रहते हैं पता अपना।
अहले बस्ती को रौशनी तो मिली,
क्या हुआ घर अगर जला अपना।
ज़िन्दगी इक कड़ी मशक्कत है,
कह रहा है ये तज़ुर्बा अपना।
रहज़नी के अमल में माहिर है,
दौरे हाज़िर का रहनुमा अपना।
क्यों नही फिर गले लगाते हम,
एक बस दर्द ही सगा अपना।
बेच ईमां खरीद ली रौनक,
चैन पर खो गया ‘शिखा’ अपना।
दीपशिखा सागर-