ग़ज़ल
दर्द को अब मुँह चिढ़ाना आ गया,
आसुंओं में मुस्कुराना आ गया।
फ़र्ज़ पर देकर बयाना मौत को,
क़र्ज़ साँसों का चुकाना आ गया।
हाय कातिल वो निगाहों की छुरी,
सिम्त दिल के अब निशाना आ गया।
चाशनी में घोलकर गुफ़्तार को,
काम उनको भी बनाना आ गया।
आहटें दिल पर नए तूफ़ान की,
लग रहा वापिस दिवाना आ गया।
ख्वाब के पंछी चलो आओ इधर,
दिल लिए अश्क़ों का दाना आ गया।
दिल को तेरी याद के शामो सहर,
रेशमी पर्दे हिलाना आ गया।
भूख से बिलखेंगे बच्चे अब नहीं,
बेच ईमां धन कमाना आ गया।
बोझ बनने जब लगी फरमाइशें,
याद बाबूजी का शाना आ गया।
ज़ीस्त का हासिल ‘शिखा’ इतना ही बस,
दर्द ओढ़े गम बिछाना आ गया।
दीपशिखा सागर-