ग़ज़ल
एक पल को यूँ लगा कितनी भली है ज़िंदगी
और दूजे पल लगा विष की डली है ज़िंदगी
ज़िंदगी इक मौत है या मौत कोई ज़िंदगी
कौन जाने किस छलावे में ढली है ज़िंदगी
चीख आँसू दर्द धोका और भी क्या नाम लें
हादिसों की गोद में जैसे पली है ज़िंदगी
हों भले दुनिया में कितने ही महल औ’ गुलसिताँ
यार का घर हो जिधर बस उस गली है ज़िंदगी
धूप में जलते अगर तो पाँव छाँव तलाशते
छाँव में बैठे हुए पल पल जली है ज़िंदगी
साँस आदम की यहाँ पर रेत मिट्टी सी बही
और नदिया की तरह बहती चली है ज़िंदगी
सुरेखा कादियान ‘सृजना’