‘ग़ज़ल’
राज़-ए-मोहब्बत को हमें कभी, छुपाना आता नहीं।
माना है अपना जिसे,
भुलाना उसे आता नहीं।
संगमरमर सा आंगन नहीं है बना मेरा तो क्या हुआ?
चिकनी सतह पर हमें भी ,चलना आता नहीं।
कच्ची सी इक बस्ति में उसपार है घर कच्चा मेरा,
कंकरीटों का ये शहर मुझे कभी भी सुहाता नहीं।
दिल का अमीर हूँ मैं, पर ख़जाने का ग़रीब हूँ,
शानो की चिलमन से, दर सज़ाना आता नहीं।
वतन से बेइंतहा, मोहब्बत है मुझको अपने सुनो,
वतन के दुश्मन को माफ़ करना मुझे भाता नहीं।