ग़ज़ल
उलझी उलझी सी रात, इक पहेली सी है,
फिर भी तन्हाई में वो, इक सहेली सी है।
चाँद भी है आसमां में, सितारे भी हैं बहुत,
फिर भी चांदनी वहाँ, क्यों अकेली सी है?
नूर चेहरे पर रहता था, हर दफ़ा ही जिसके,
आँख आजकल उसकी, कुछ गीली सी है।
भटकती रूह दरबदर, ख़ाक सी फ़िज़ा में,
चाल उसकी कुछ, लग रही नशीली सी है।
तितलियों सा चंचल, था मिजाज उसका,
सूरत से आजकल वो, दिखती पीली सी है।
जम रही हैं अब साँसें छूने से बहारों के,
हवा चल रही है जो, वो बर्फीली सी है।
बात कितनी भी मुलायम, की हो ज़माने से,
कानों को लग रही वो, क्यों नुकीली सी है।
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