‘ग़ज़ल’
होंठों पर सजी रहती है मुस्कराहट,
और ग़म बनकर अश्क निकलते हैं।
जिन्दगी आवारा सी यहाँ फिरती है,
औ पिंजरों में शौके अरमान पलते हैं।
बाहरी देख बहारें नाचा करते हैं जो,
अंदर उनके रोज कई ख्वाब जलते हैं।
चढ़ा करते हैं रोज़ चोटियां दुनिया में,
वो घर अपने ही कई रोज़ फिसलते हैं।
ये भी ठीक है साहिब ऐसे जिया करें,
कि वो जहर भी मुस्कराके निगलते हैं।
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स्वरचित एवं मौलिक