ग़ज़ल-2 (ज़िन्दगी दौड़ती है सड़कों पर)
ज़िन्दगी दौड़ती है सड़कों पर
और फिर मौत भी है सड़कों पर
दिनदहाड़े पड़ा है इक ज़ख़्मी
क्या अजब तीरगी है सड़कों पर
लोग बस बे-दिली से चलते हैं
यानी बे-चारगी है सड़कों पर
उम्र घर में तो उस की कम गुज़री
और ज़ियादा कटी है सड़कों पर
मुफ़्लिसी कैसी-कैसी शक्लों में
तू भी अक्सर मिली है सड़कों पर
घर तो गोया किसी का है ही नहीं
सब का सब शहर ही है सड़कों पर
चलते हम-तुम भी है मगर ‘फ़रहत’
होड़ रफ़्तार की है सड़कों पर