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2 Mar 2020 · 1 min read

ग़ज़ल

——ग़ज़ल—-
221-1221-1221-122

तूफ़ान अदावत का जो उट्ठा है दबा दो
नफ़रत है जहाँ प्यार का इक दीप जला दो

ख़ुश्बू से मुहब्बत की मोअत्तर हों फ़िज़ांएँ
सहरा सा जो गुलशन है इसे फिर से खिला दो

आँखों से पिलाता भी नहीं हमको वो साक़ी
कहता है मगर मुझसे ये मयख़ाना भुला दो

गर चाहते हो अम्न का माहौल वतन में
जय चंद बने बैठे हैं जो उनको भगा दो

फिर आज पुकारे तुम्हें ये देश की धरती
फैलाते जो वहशत हैं उन्हें जड़ से मिटा दो

अरमान है दिलजान है ईमान तिरंगा
छूले ये गगन पल में इसे इतना उठा दो

करना है अगर राज़ तो नेता यही कहते
हिन्दू व मुसलमान को आपस में लड़ा दो

रंगीन जहां सारा लगेगा तुम्हें “प्रीतम”
ये शर्त है हर ग़म को हवाओं में उड़ा दो

प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)

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