ग़ज़ल
कैसा है माहौल कि दहलने लगे हैं लोग
चलते हुए भी कितना संभलने लगे हैं लोग ।
कल तक थी दिलों में राय जो पुख़्ता
यकबयक फिर कैसे बहलने लगे हैं लोग ।
नासाज़गारी भी अब नागवार होने लगी है
बेवजह ही देखो उबलने लगे हैं लोग ।
हुज़ूम में कौन सख़्श है ,क्या गुनाह है
ख़ाज-ए-हस्त मिटाने मचलने लगे हैं लोग
काबिल-ए-बरदाश्त अब कुछ भी नहीं
खौ़फ के साए में पलने लगे हैं लोग ।
हमसायगी में देखा जो मरज़-ए-दिल
सेहत की फ़िक्र में टहलने लगे हैं लोग ।
समझने की फुर्सत अब किसे यहां
माहौल के साथ ही ढलने लगे हैं लोग ।