~ग़ज़ल~
~ ग़ज़ल ~
यादों से तेरी आज फिर दामन छुड़ा रही हुँ मैं
मचलते अरमानों को लोरी से सुला रही हुँ मैं ।
सुर सरगम के छेड़ दिये थे तराने दिल में तुने
क्यूँ गज़ल तेरे नाम की आज फिर गुनगुना रही हुँ मैं ।
मिला के नजरें नजरों से लगा दी आग इश्क की
आग तेरे इश्क की अश्कों से बुझा रही हुँ मैं ।
मोहब्बत तेरी क्यूँ गुनाह बन बैठी ज़माने में
पाक-ए-दामन पर लगे वो दाग धुला रही हुँ मैं ।
तोड़ के दिल के टुकड़े उछाल दिये हवा में तूने
बिखरे कांच से दिल के टुकड़े फिर जुटा रही हुँ
मैं ।
महज़ इश्क की बातें ही रह गई है पास मेरे
वीराने उजड़े दिल का हाल फिर सुना रही हुँ
मैं ।
लत ऐसी लगी तेरी ‘अंकनी’ को शराब सी
बस उसी हादसे सी मोहब्बत को भुला रही हुँ मैं ।
डॉ. किरण पांचाल (अंकनी)