ग़ज़ल
क़ातिल तेरी अदाएँ शातिर वो मुस्कुराना
पहलू में है छिपा खंजर वैसे दिल मिलाना
कुछ तो मिजाज़ अपना बाक़ी असर तुम्हारा
ऐसे खुशी में झूमे के बन गया फ़साना
फ़ितरत तेरी समझकर ये हँस रहे सभी हैं
मिलकर तेरा सभी से यूँ हाले-दिल सुनाना
सबको ख़बर हुई है मुश्किल भी आ पड़ी है
फ़िर से करीब आने को ढूँढता बहाना
माना के अब ज़हर ये पी लिया तू ने अकेले
लेकिन कभी न भूलें शमशीर का निशाना
ईमान ही ‘अमर’ खुद तेरा गवाह हर।दिन
हों ज़ख्म कुछ हरे भी, गैरों को मत रुलाना
——- अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)