ग़ज़ल
अँधेरों से अगर घबरा रहा हूँ.,
उजालों से भी धोका खा रहा हूँ,,
सुलझने का नहीं मिल पाया मौक़ा.,
मैं उल्झन में सदा उल्झा रहा हूँ,,
हज़ारों चाहने वाले हैं फिर भी.,
ज़रूरत के समय तन्हा रहा हूँ,,
हवाऐं जिस तरफ़ लाये जा रही हैं.,
उसी जानिब मैं चलता जा रहा हूँ,,
किसी का कौन होता बै जहां में.,
ये अपने आप को समझा रहा हूँ,,
तेरा मिलना तो मुमकिन ही नहीं है.,
“तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ”,,
लगाया था कभी सीने से जिस को.,
“सिराज” उस से ही धोखा खा रहा हूँ..!
सिराज देहलवी @ ओ.पी. अग्रवाल
०८/०७/२०१६