ग़ज़ल
मैं ने ये जब सुना तो मेरा दिल दहल गया।
सूरज का जिस्म आग की लपटों से जल गया।
मौसम ने ऐसी आग लगाई थी रात में।
मेरे बदन में खून था जितना उबल गया।
सूखे लबों की प्यास बुझाने के वास्ते।
कल रात चाँद बर्फ की तरह पिघल गया।
मंज़र अजब ये देख के हैरत ज़दा हैं फूल।
शबनम का पाँव धूप की शिद्दत से जल गया।
ताबीर की हथेलियाँ पीली न हो सकीं।
इक ख़ौफ़ मेरे ख़्वाब के सर को कुचल गया।
परछाइयों ने अक्स के कपड़े पहन लिए।
आईना जब से संग के पैकर में ढल गया।
कैसे बताएं तुझ को के तेरी तलाश में।
साया हमारे जिस्म का पैदल निकल गया।
कलयों का हुस्न लूट के भँवरे चले गए।
फूलों पे धूप उंडेल के सूरज निकल गया।
होंटों से तेरे लफ़्ज़ों के बादल बरस गए।
खामोशियों का दश्त ए सुकूँ था जो जल गया।
जलते हुए चराग़ पे जूँ ही नज़र पड़ी।
कुछ सिरफिरी हवाओं का लहजा बदल गया।
मोहसिन आफ़ताब केलापुरी
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