ग़ज़ल
——ग़ज़ल ——
नफ़रतों की आतिश में जलती राजधानी है
या ख़ुदा वतन की क्या बन गयी कहानी है
नौजवाँ भटकते हैं रिज़्क़ के लिए दर-दर
अब जवाल की इससे बढ़ के क्या निशानी है
सुर्ख़ हो रहीं सड़कें क़त्ले- आदमियत से
बह रहा लहू ऐसे जैसे बहता पानी है
फूल कलियाँ भौरों की बागबाँ नहीं सुनता
गुलसिताँ जलाने को उसने मन में ठानी है
पर क़तर परिन्दों के कहकहे लगाता जो
उसपे भी सितम होगा उसने ये न जानी है
हर क़दम पे ही रुसवा करता वो मुझे जालिम
आज भी मेरे दिल पर जिसकी हुक़्मरानी है
कौन है यहाँ अपना कौन ग़ैर है “प्रीतम”
आज क़शमक़श में ये मेरी ज़िन्दगानी है
प्रीतम श्रावस्तवी
श्रावस्ती [ उ० प्र०]