ग़ज़ल/हर दफ़ा दगा देते हो
इक अज़नबी प्यासे को सूखा कुआँ देते हो
जाँ लेकर दुआँ देते हो तो क्या दुआँ देते हो
तुम्हारी फ़ितरत पे हम वाक़ई हैरां हैं ज़ालिम
कभी जला देते हो कभी इतना बुझा देते हो
ये दिल समझता है तुम्हें गर्दिशों में इक चरागाँ
औऱ तुम अनजाने में हमें हर दफ़ा दगा देते हो
हमें तो हैरत होती है तुम ऐसा कैसे कर लेते हो
किसी मजबूर मुसाफ़िर को कहाँ भटका देते हो
जो तुम्हें महबूबा मान चुका है, उसे सज़ा देते हो
इक उसे तन्हा छोड़कर बाक़ी सबको वफ़ा देते हो
तुम्हारी ही तस्वीर को तकते नज़र नहीं थकती
हम परेशां हैं इस क़दर हमें कैसी खुशियाँ देते हो
कच्चे कानों ने ना जानें कितने दिलबर खोये हैं
तुम खामखां यूँ बेवजहा ज़ख्मों को हवा देते हो
जब लगने लगता है जन्नत बहुत क़रीब है हमारे
तुम तिलमिलाकर जाने कौनसा मुद्दा उठा देते हो
पूरी दुनिया में हम भी किस्मत के कितने मारे हैं
जो तुम हमें ज़िन्दगी दे देते हो फ़िर मरवा देते हो
कैसे चलकर आएंगे तुम्हारे दर पर हम ओ सनम
हमदर्दी में इस तरहा कैसे कैसे निशां बना देते हो
हम तुम्हारे इतने हो गए ,बद्दुआ भी नहीं दे सकते
औऱ तुम हमें ग़म देकर दुआँ में यारा बद्दुआ देते हो
ख़ुद तो चैन से सोते हो, सारा जहाँ देखते फ़िरते हो
हमें तन्हाइयों में छोड़कर कब्रिस्तानों में जगहा देते हो
हाय !हमनें तुम्हें क्यों चाहा हम तुमपे ही क्यों मर गए
तुम तो छीनकर आँखों से चमक भी आबे रवाँ देते हो
~अजय “अग्यार