ग़ज़ल / हमारी भी सनम है
पाक मुहब्बत के फ़कत यही तो फ़न है
कुछ बे-लौस ख़्वाहिशें और पागलपन है
हो जाए तो इक पल में हो जाए आँखें चार
ना हो तो खुदगर्ज़ निगाहें और ख़ालीपन है
झूंठे फ़साने चन्द दिनों में किनारे लग जाते हैं
सच्चों को महीनें, बरस या पूरी उम्र भी कम है
हम बेहतर समझते हैं इश्क़, हममें आग लगती है
रोज़ ऊपर से नीचे तक भुनते हैं हमारी भी सनम है
~अजय “अग्यार