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15 Sep 2018 · 1 min read

ग़ज़ल/शब-ए-हिज़्र

आज फ़िर वो याद बे हिसाब आ गए
हमारे हाथों में मुरझाए कुछ गुलाब आ गए

तसव्वुर चीज़ ही है ऐसी, क़िताब के जैसी
वो बनके ग़म-ए-फुरक़त की क़िताब आ गए

अभी अभी होश में थे, फ़िर खो गए इतना
इन आँखों में मुहब्बत के कुछ ख़्वाब आ गए

दर्द-ए-दिल बढ़ने लगा इस क़दर तन्हाई में
हमनें उठाया पैमाना वो बनके शराब आ गए

नशा चढ़ने लगा धीमे धीमे शब-ए-हिज़्र में
हमनें भी टकराये ज़ाम से ज़ाम रुआब आ गए

हम नशे में हैं मग़र इतना तो होश है अभी
हमनें इश्क़ किया इश्क़ में डूबकर ज़नाब आ गए

__अजय “अग्यार

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