#ग़ज़ल- #वो_चाहता_है कि मैं उसको अब #मुआफ़ करूँ…
वो चाहता है कि मैं उसको अब मुआफ़ करूँ।
ख़ुद अपने क़त्ल के ही ख़ून को मैं साफ़ करूँ।।
रहें ये राज़ सदा राज़ अब नही मुमकिन।
घुमाफिरा के नही बात साफ़-साफ़ करूँ।।
सहारा हैं तेरी यादें ही सर्द रातों में।
बिछा लूँ उनको ही और उनको ही लिहाफ़१ करूँ।।
यकीन आप करें और ये ज़माना भी।
मैं चाहता हूँ कि अब दूर इख़्तिलाफ़२ करूँ।।
ज़रा ज़रा से ज़रा ‘कल्प’ स्वार्थ की ख़ातिर।
मैं साज़िशें नहीं आवाम के ख़िलाफ़ करूँ।।
✍?कल्पारविंद
1212 1122 1212 22
१लिहाफ़- रजाई
२इख़्तिलाफ़-अंतरकलह, असंतोष