ग़ज़ल- वो साथ छोड़कर मेरा शायद भटक गये…
वो साथ छोड़कर मेरा शायद भटक गये।
मंज़िल थी आसमां पे ज़मीं पर अटक गये।।
ऐ सोच कर बुज़ुर्ग है करते रहे अदब़।
बच्चों सी करते हरक़तें वो क्या सटक गये।।
थे दफ़्न हम ज़मीं में यूँ सदियों से क़ब्र में।
कांधों पे देख उनको ये नैना मटक गये।।
रहता हूँ मौन सोच के शीशे सा दिल न हो।
आवाज़ सुनके तो कई शीशे चटक गये।
उनको तो फ़र्श-अर्श में कुछ फ़र्क भी नही।
ऊपर उठाके हमको वो नीचे पटक गये।।
मिलती सफलता भी हमे हर हाल में सनम।
हम साथ ही चले थे तुम्हीं तो भटक गये।।
शर्मिंदा हम नहीं हैं अदब से झुके हैं हम।
फल फूल ही रहे हैं तभी तो लटक गये।।
जब तक रहा उजाला तो ये मुंह छिपाये थे।
सूरज के डूबते ही सितारे छटक गये।।
मेरा बज़ूद उनकी नज़र में नहीं था फिर ।
होकर ज़ुदा वो ‘कल्प’ से इतने झटक गये।।
✍?अरविंद राजपूत ‘कल्प’
221. 2121. 1221. 212