ग़ज़ल- यार की यारी लिखूँ, या फ़िर वफादारी लिखूँ
यार की यारी लिखूँ, या फ़िर वफादारी लिखूँ।
जिंदगी के खेल में, बाज़ी को अब हारी लिखूँ।।
मूर्खता अपनी को मैं ख़ुद, की समझदारी लिखूँ।।
आत्मचिंतन को घुटन कह, बात सब प्यारी लिखूँ।।
था सिकन्दर मानता मैं, जीतने जग को चला।
जीतने की चाह थी क्या, जंग अब हारी लिखूँ।।
प्यार की पीड़ा मेरी सौ, साँप के काटे सी है।
जान को प्यारी लिखूँ, मौत की बारी लिखूँ।।
क़त्ल कर ते लोग अपने ही उसूलों का सदा।
दुनिया के रीति रिवाजों की मैं बलिहारी लिखूँ।।
मर रहा पल पल यहाँ पर, खेल खेले जिंदगी।
मौत को प्यारी लिखूँ या जिंदगी हारी लिखूँ।।
लिख रहा श्रंगार था पर, कब विरह लिखने लगा।
ख़त्म होती अब सिहाई, खून की बारी लिखूँ।।
“कल्प” की सब कल्पनाओं, का हुआ अब खातमा।
लद चुकी सी जिंदगी को, लाश से भारी लिखूँ।।
✍?? अरविंद राजपूत “कल्प”?✍?
बहरे- रमल मुसम्मन महजूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
(2122, 2122, 2122, 212)