ग़ज़ल:- मैं हाल-ए-दिल अपना सनम क्यों कह नहीं पाता
मैं हाल-ए-दिल अपना सनम क्यों कह नहीं पाता।
कैसे कहूँ तेरे बिना मैं रह नही पाता।।
चाहा है तुमको जान से बढ़कर सनम मैंने।
दर्दे जुदाई यार की क्यों सह नही पाता।।
क्यों कह न पाया मैं जुबां से बात अपनी ही।
कैसे कहूं अब तो कहे बिन रह नहीं पाता।।
लगता करेगा गर्क़ अब मेरे सफ़ीने को।
सैलाब मेरे आँसुओं का बह नहीं पाता।।
था आशियाना तो कभी पुरनूर अपना भी।
हूँ खंडहर सा आज मैं पर ढह नही पाता।।
गहराई तो सागर की मैंने नाप डाली है।
क्यों ‘कल्प’ तेरे दिल मे रहकर तह नही पाता।।
अरविंद राजपूत ‘कल्प’
2212. 2212. 2212. 22