ग़ज़ल- जिन्दा रहता हूँ रोज ग़म खा के
ग़ज़ल- जिन्दा रहता हूँ रोज ग़म खा के
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यूँ हीं ज्यादा कभी मैं कम खा के
जिन्दा रहता हूँ रोज ग़म खा के
मुझको उसपे यकीं नहीं होता
जब भी कहता है वो कसम खा के
जिन्दगी और भी सतायेगी
बच गये हैँ ज़हर भी हम खा के
वे तो मोटे हुए मुहब्बत में
मैं तो पतला हुआ वहम खा के
दूर “आकाश” हूँ उजालों से
कैसे जिन्दा रहूँ ये तम खा के
– आकाश महेशपुरी