ग़ज़ल/मेरी हर बेचैनी का अस्बाब है जालिमा
मेरी ज़िन्दगी का इक अनोखा ख़्वाब है जालिमा
जिसे पढ़ता हूँ मैं रोज़ वो इक किताब है जालिमा
मुझे किसी भी बाग़ीचे में ऐसा गुलाब नहीं दिखता
बड़ा कोमल बड़ा चंचल सा इक गुलाब है जालिमा
उसके होने से मेरी इन आँखों में नशा सा चढ़ता है
जी करता है पी लूँ, वो मीठी सी शराब है जालिमा
मेरे दिल की गली में भी आरिशें चमकने लगी हैं
मेरे दिल के हर कोने में उगता आफ़ताब है जालिमा
वो पूनम का चाँद भी है फ़ीका फ़ीका उसके सामने
मेरी जाँ है सबसे अलैयदा वो मेरा महताब है जालिमा
वो मेरी रहे उम्रभर बस मेरी ऐ लोगों दुआं करना
मैं कुछ भी नहीं उसके बग़ैर मेरी हर बेचैनी का अस्बाब है जालिमा
~अजय “अग्यार