ग़ज़ल- मेरा हो कर भी वो पराया है…
मेरा हो कर भी वो पराया है।
बाहों में गैर की समाया है।।
दिल मे रहता जगह नही घर में।
हमने कैसा नसीब पाया है।।
ज़ख्म हमने छुपा लिए अक्सर।
दर्द दिल का उभर ही आया है।।
वो नही तो बजूद मेरा क्या।
जिस्म मेरा उसी का साया है।।
इस नशेमन को तोड़कर उसने ।
‘कल्प’ घर गैर का सजाया है।।
✍? अरविंद राजपूत ‘कल्प’