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7 Sep 2018 · 1 min read

ग़ज़ल/मुहब्बत इबादत है, इबादत कहर होती नहीं

अब तो पहले जैसी सहर होती नहीं
तेरे बिना चाँद तारों में भी, गुज़र होती नहीं

ये मेरी आँखें नदी की धारा बन गयी
कभी समंदर सी थी ,अब समंदर होती नहीं

तुझें क़तरा-क़तरा डाली-डाली ढूढ़ता हूँ
बस जी रहा हूँ झूँठी ज़िन्दगी, बसर होती नहीं

क्या यकीं दिलाने को ख़ून-ए-ज़िगर करूँ
मेरी तुझपे है नज़र, तेरी मुझपे नज़र होती नहीं

इन बारिशों से ज़्यादा हर रोज़ बरसता हूँ
मैं तुझसे इश्क़ करता हूँ ,मुझसे कसर होती नहीं

तूने ज़माने की फ़िक्र की ,भुगत रहा हूँ मैं
मुहब्बत तो इबादत है ,इबादत कहर होती नहीं

तेरी आँखों में भी इक़ दिन जुगनू चमकेगें
ये मेरे दिल की आवाज़ है ,इधर-उधर होती नहीं

—अजय “अग्यार

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