ग़ज़ल — मह्रबां बन कर वो मेरी ज़िंदगी में आ गए
2122 2122 2122 212
ग़ज़ल
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दोपहर की धूप में बादल के जैसे छा गए
ज़िन्दगी जीते रहे हम दुश्मनों की भीड़ में
रहबरों के संग में ही आके धोका खा गए //२
झूठ सीना तान कर मैदान में अब चल रहा
सच ज़ुबाँ पे जो भी लाए वे खड़े शरमा गए //३
सर उठाओ ना हमारे सामने सागर हैं हम
ताल हो तुम एक बारिश देखकर बौरा गए //४
भीड़ में वो खो गए जो मर मिटे ईमान पर
छापकर अख़बार झूठे सुर्खियों में आ गए //५
— क़मर जौनपुरी